शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

मैं भी शामिल हूँ नींव की ईंट में

कह दो मठाधीशों से,
तुम्हारे मठ का खम्भा ,
छत और घंटा तलक ,
है मेरे उन्ही फेंके गए सिक्कों का परिणाम ,
जो कमाया है मैंने अपनी उसी आजीविका से ,
जिसे तुम समझते हो तुच्छ, हीन और हेय |
तुम्हारे कम्बल ,चादर और तकियों में ,
शामिल है मेरे बदन की बदबू,
तुम्हारे भोग भंडारे में,
बूँदें है मेरे उस पसीने की  ,
जो सर से चल कर आ पहुंचा था मेरे जूतों तक  ,
तुम्हारा  मल ढोते ढोते |
तुम्हारे आराध्य के आभूषण में
है मेरा भी एक रत्न ,
जो जुटाया था मैंने चराकर जानवर,
मार कर मछलियाँ और सिल कर जूते |
...........और सुनो नाक भों सिकोड़ते,
तुम खूब जानते हो ,
तुम्हारी मोटी चर्बी ,
कृपा है,
मेरी ही तुच्छ आजीविका की |
तो कैसा दंभ इन दान के पैसों पर ,
क्यों इतराते हो चंदे के भोजन पर ,
फेंके हुए सिक्कों से बना कर आस्था के महल ,
मुझ ही को करते हो बहिष्कृत |

आभार :- अरुण कुमार तुरैहा 

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