मंगलवार, 29 मई 2012

समाजवाद की प्रयोगशाला बना है उत्तर प्रदेश


समाजवादी पार्टी के प्रदेश प्रमुख और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भाग्य के चहेते हैं। मात्र अड़तीस साल के नौजवान पर यूपी के मतदाताओं का भरोसा काबिले गौर है। मुख्यमंत्री चुने जाने से पहले समाजवादियों ने अखिलेश को संगठन की कमान सौंपी थी और इसके बाद प्रदेशाध्यक्ष की हैसियत से अखिलेश की साइकिल यात्रा ने चुनावी राजनीति में गुणात्मक बदलाव कर दिया।

राज्य की आम जनता बीएसपी के खिलाफ थी और उसे एसपी के रूप में विकल्प नजर आया हालांकि कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने 207 विधानसभा सीटों पर 211 रैलियों को संबोधित किया था। तब भी कांग्रेस मात्र 28 सीटें ही जीत सकी और दूसरे नंबर पर कांग्रेस के 31 प्रत्याशी ही आ सके।

मुख्यमंत्री चुने जाने से पहले अखिलेश कन्नौज संसदीय क्षेत्र से एक बार नहीं, बल्कि तीन बार लोकसभा के लिए चुने गए। कन्नौज संसदीय क्षेत्र समाजवादियों का तीर्थ कहा जा सकता है। इसी संसदीय क्षेत्र से जुझारू जन संघर्षों के अग्रदूत डॉ. राम मनोहर लोहिया लोकसभा के लिए चुने गए थे और उन्होंने संसद को समाज के कमजोर वर्ग के सरोकारों से जोड़ दिया था।

तब लोकसभा में 22 सोशलिस्ट चुनकर आए थे, जिसमें लोहिया, मधु लिमये, किशन पटनायक और रामसेवक यादव जैसे कर्मठ संविधानविद भी थे, लेकिन लोहिया ने नेता बनाया था मनीराम बागड़ी को। यह थी लोहिया की नेतृत्व विकसित करने की अदा। लोहिया के नेतृत्व में समाजवादियों ने पिछड़े वर्ग को अग्रगामी भूमिका में लाने की कर्मनीति निर्धारित की थी। उनका नारा था- सोशलिस्टों ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावै सौ में साठ। लोहिया के पिछड़े में समूचा नारी समाज शामिल था। ब्राह्मण से लेकर दलित वर्ग की नारी पिछड़े वर्ग में थी। इस तरह अखिलेश की जीत एक तरह से डॉक्टर लोहिया के सपने की जीत है।

जनेश्वर मिश्र समाजवादियों के पूर्ण बहुमत का सपना देखा करते थे। लोहिया और मधु लिमये जैसे असाधारण चिंतक और समाजवादी नेताओं की भी ऐसी ही आकांक्षा थी। समाजवादी आंदोलन के पितृ पुरुष और समाजवादी आचार शास्त्र के प्रवर्तक आचार्य नरेंद्र देव, जय प्रकाश नारायण और यूसुफ मेहर अली की त्रिमूर्ति ने भी समाजवादियों के लिए इसी तरह के मनोभाव हृदय में संजोए थे। समाजवादियों के लिए सिद्धांत सर्वोपरि होता है और सत्ता गौण। आचार्य नरेंद्र देव, जेपी और लोहिया के चिंतन पर गांधी का असर प्रतिबिंबित होता है। रोजा लुक्सेमबर्ग के शब्दों में- समाजवाद रोटी-मक्खन का सवाल नहीं है, किंतु एक सांस्कृतिक आंदोलन है, एक विशाल तथा उन्नत संसार व्यापी विचार पद्धति है।

लोहिया और आंबेडकर के बीच अक्सर पत्र व्यवहार होता रहता था। अपनी मृत्यु से एक दिन पहले आंबेडकर ने सोशलिस्ट एस. एम. जोशी और कम्युनिस्ट पी. के. अत्रे को लिखे पत्र में कहा कि उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी का प्रारूप तैयार किया है और वह चाहते हैं कि वे दोनों इस नवगठित पार्टी की रहनुमाई करें। जबकि प्रचलित अर्थों में जोशी और अत्रे ब्राह्मण थे।

मुलायम सिंह ने समाजवादी आंदोलन की शानदार परंपरा से प्रेरणा लेकर एसपी-बीएसपी गठबंधन की बुनियाद रखी थी और समाजवादियों की मदद से कांशीराम इटावा संसदीय क्षेत्र से लोकसभा के लिए चुने गए थे। लेकिन बीएसपी नेतृत्व की सत्ता लोलुपता ने उसे हिंदुत्व का पैरोकार बना दिया, जबकि बाबा साहब आंबेडकर ने दलित वर्ग को सीख दी थी कि अगर हिंदू राज सचमुच एक वास्तविकता बन जाता है तो इसमें संदेह नहीं कि यह देश कि लिए भयानक विपत्ति होगा क्योंकि यह स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के लिए खतरा है। इस दृष्टि से यह लोकतंत्र से मेल नहीं खाता।

हिंदू राज को हर कीमत पर रोका जाना चाहिए। लेकिन मायावती ने बाबा साहब की सीख को दरकिनार कर संघ-बीजेपी के सहयोग से सत्ता-सुख भोगने में गुरेज नहीं किया। बाबा साहब व्यक्ति पूजा के खिलाफ थे। वर्ष 1949 में संविधान सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था: राजनीति में व्यक्ति पूजा अवमूल्यन और अधिनायकवाद की डगर है। लेकिन आज के बीएसपी नेतृत्व के लिए बाबा साहब की सीख का कोई मतलब नहीं है। इसलिए दलित वर्ग में भी बीएसपी का जनाधार घट रहा है। यूपी विधानसभा चुनाव के नतीजे से यह उजागर हुआ है।
साभार : शिव कुमार मिश्र