शनिवार, 31 दिसंबर 2011

नोट छापै की मशीन

हो गयीं सूबे में जबसे, बहन जी गद्दीनशीन |
आ गयी कब्जे में जैसे, नोट छापै की मशीन ||
क्या किसी की हैसियत, जो कुछ कहे इनके खिलाफ |
अब सियासत कर रहे, लुच्चे लफंगे और कमीन ||
शहर की, लगता है जैसे, आ गयी बासी हवा |
वर्ना मेरे गाँव का, मौसम भी था बेहद हसीन ||
नासमझ था, पाल बैठा, नौकरी की हसरतें |
हाथ से जाती रही बिरजू की दो बीघा ज़मीन ||
पिट रहा भूकन कहीं तो लुट रही शीलू कहीं |
आम है मंज़र यही , मुलजिम हैं ज़ेरे आस्तीन ||
कर रहे हैं दूसरे , सूबों के नेता रुख यहाँ |
लूट खाने में नहीं, यूपी से कोई बेहतरीन ||
देख करके हौसला, कमज़ोर तबके का "अरुन" |
आएगा बदलाव अबके, होगया मुझको यकीन ||

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