बुधवार, 22 जुलाई 2015

मछुआ संघर्षों का पर्याय : जुलाई माह


 यूँ तो 10 जुलाई सरकारी तौर पर मछुआ दिवस के रूप में प्रचलित है लेकिन अधिकार विहीन उद्वेलित मछुआ समाज ने जून से आरम्भ हुए संघर्ष के बाद जुलाई में अपने आन्दोलनों को पैना करने में कोई कोर कसर नहीं उठा छोड़ी।
उत्तर प्रदेश, बिहार और मप्र का सम्पूर्ण मछुआ समाज आज करवट ले रहा है।
बिहार में अब तक सत्ता की लड़ाई से बाहर रहे और मूक दर्शक की भूमिका निभाने वाले मछुआ समुदाय ने इस बार कमर कसते हुए अब तक के सबसे बड़े संघर्ष का शंखनाद राजधानी पटना से किया है । बिहार विधानसभा चुनाव को दृष्टिगत रखते हुए बिहार की निषाद, केवट, साहनी, मल्लाह, नोनिया, बिन्द, बेलदार, चंद्रवंशी कहार, रावनी ,रमानी और तुरहा जातियों के लोग आस्तित्व की लड़ाई को तेज कर राजनैतिक प्रतिनिधित्व के लिए संगठित होकर संघर्ष कर रहे हैं । राजनैतिक दलों के लिए नफे नुकसान का बायस बनी इन जातियों के लोग आरक्षण की लड़ाई के साथ सत्ता में पर्याप्त प्रतिनिधित्व भी राजनैतिक दलों से सुनिश्चित करा लेना चाहते हैं । जातीय राजनीती का गढ़ रहा बिहार इस दफा यादव मुस्लिम दलित समीकरण के साथ साथ मछुआ समीकरण से भी पहली बार प्रभावित होने जा रहा है । जुलाई माह में इस दिशा में सम्बंधित पक्षों ने जमकर मेहनत की है जिसका सकारात्मक परिणाम अभी से नज़र आने लगा है ।
वहीँ उप्र के मछुआ समुदाय के लोग केंद्र की मोदी सरकार के निषाद विरोधी फैसलों के तहत 17 पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने संबंधी उप्र सरकार के प्रस्ताव को निरस्त करने पर दिल्ली घेर कर संसद सत्र बाधित करने का ऐलान किये हुए है । 5 जुलाई को लखनऊ में आहूत तैयारी बैठक में उमड़े जनसैलाब ने एक विशाल आंदोलन की नींव रखते हुए स्पष्ट कर दिया कि अब अधिकारों की लड़ाई में मछुआ समाज बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने से भी पीछे नहीं हटेगा । SC आरक्षण हमारी मांग नहीं, संकल्प है और इसके लिए भारतीय मछुआ महासंघ के कार्यकर्ता प्रदेश के जिलों की जमीन नापते हुए समाज को 29 जुलाई के लिए तैयार कर रहे हैं। आशा है एक ऐतिहासिक आंदोलन दिल्ली की सरजमीन पर आकार लेगा जिसके दूरगामी परिणाम परिलक्षित होंगे ।
आज 22 जुलाई 2015 से ही मप्र के सभी मांझी (भोई, कहार, ढिमर, केवट, मल्लाह, निषाद, बाथम, रायकवार, नावड़ा , तुराहा, सोंधिया, जलारी एवं मुड़ियारी आदि ) भाई अपने अनुसूचित जनजाति आरक्षण के अधिकार के लिए उज्जैन महाकाल की भूमि से भोज की धरती भोपाल तक पैदल मार्च कर मांझी अधिकारों के संघर्ष का बिगुल बजाने जा रहे हैं और प्रदेश की शिवराज सरकार के झूठे वायदों की पोल खोलते हुए मुख्यमंत्री निवास के समक्ष मुंडन करवा कर विरोध दर्ज़ करायेंगे। दांडी मार्च की याद दिलाने वाला मांझी भाइयों का ऐतिहासिक भोपाल मार्च मांझी संघर्ष के इतिहास में एक नए अध्याय का सूत्रपात करेगा ।
सामाजिक संगठनों के लिए आंदोलन छेड़ देना कोई नई बात नहीं । प्रायः अधिकारों की आवश्यकता महसूस करने वाले जन आधारित सामाजिक संगठन अपनी जमीनी पकड़ का एहसास कराते हुए गूंगी बहरी सरकारों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए आन्दोलनों का सहारा लेते हैं । लेकिन आश्चर्य और खेद का विषय है कि सम्पूर्ण उत्तर भारत का मछुआरा समाज अपने अधिकारों के लिए आंदोलित हैं और सरकारें उपेक्षा और तिरस्कार की हद किये डाल रही हैं। संविधान लागू हुए बेशक 65 वर्ष बीत चुके हैं लेकिन आज भी लोग अपने मौलिक अधिकारों की सतत मांग कर रहे हैं और सामाजिक समरसता और सामाजिक न्याय का ढोल पीटने वाली निष्ठुर सरकारें मांगों पर विचार तक नहीं कर रहीं ।

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