रविवार, 18 नवंबर 2012

क्या बाल ठाकरे सचमुच नहीं रहे ?

बाल ठाकरे नहीं रहे । कल उनके महाप्राण महायात्रा को निकल पड़े । आज उनका नश्वर शरीर भी पंचतत्व में विलीन हो जाएगा । बेशक ठाकरे के रहने या न रहने से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योकि उनकी सोच अब भी जिन्दा है । ठाकरेवाद भारतीय राजनीति का ऐसा दुर्भाग्य पूर्ण पहलू हो गया है जो राजनीति में तडके या आइटम सॉन्ग का काम करता है और उन्मादी राजनीति करने वालों के लिए घृत संजीवनी है । भले ठाकरे आज नहीं है लेकिन ठाकरी सोच आज भी सर ताने खड़ी है जो भारतीय लोकतंत्र में अप्रासंगिक हो चुके गुण्डातंत्र को संरक्षित करती है और जबरदस्ती डंडे के बल पर अपनी बात मनवाने की पक्षधर है । क्षेत्रवाद में पिरोये छद्म राष्ट्रवाद और उससे उपजे मनमाने आचरण को लोकतान्त्रिक राजनीति में लाने का श्रेय बाल ठाकरे ही ले सकते हैं। ठाकरे की इसी ठसक का एहसास अमिताभ बच्चन से लेकर जावेद मियाँदाद तक ने किया था । भाषावाद और प्रांतवाद की चाशनी में लपेट कर बाल ठाकरे ने ऐसा छद्म राष्ट्रवाद परवान चढ़ाया जो दूसरों को देश द्रोही ही समझता रहा और जो एक सभ्य शहरी को मुंबई में जीने के लिए भाई मार्का किसी गली मुहल्ले के गुंडे टाइप नेता के सर्टिफिकेट की आवश्यकता पर बल देता था । अपने ही देश में पराये देश का अनुभव करा देने वाली ठाकरी सोच की मार कभी गरीब मजदूरों पर पड़ी तो कभी दक्षिण भारतीयों पर , कभी गुजरातियों पर तो कभी यूपी बिहार के मेहनतकश तबके को कूड़ा करकट और गंदगी का ढेर बता कर पड़ी । जबकि भारत माता की जय बोल कर रातोंरात दाम दोगुने चौगुना कर देने वाले जमाखोर और जय महाराष्ट्र कहकर उत्तर भारतीयों के गाल लाल कर देने वाले बाल ठाकरी सोच के सबसे बड़े पोषक और संरक्षक रहे । आज ठाकरे के जाने से वे लोग अपने आप को अनाथ महसूस कर रहे हैं , मेरी सदभावनाएँ उनके साथ हैं ।  बेशक डंडा ठोकू  शैली के आधार पर उभरे और टिके रहे बाल ठाकरे और उनकी सोच को आम महाराष्ट्रियन ने कभी बहुमत नहीं दिया जो प्रमाणित करता है कि भारतीय जनमानस आज भी बाल ठाकरे की सोच से इतर शांति, सद्वभाव और प्रेम चाहता है,  टकराव नहीं ।
श्रद्धांजलि ........................... R .I .P.

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