सोमवार, 18 जुलाई 2011

आरक्षण में विसंगतियां पार्ट 3 : दलित मुस्लिमों और दलित ईसाईयों से छुआछूत क्यों?

बड़ी बिडम्बना है कि देश की आबादी का एक बड़ा प्रतिशत आज भी स्वतंत्र भारत में दोयम दर्जे का जीवन गुज़ार रहा है | निसंदेह ये न केवल दुर्भाग्य पूर्ण है बल्कि संविधान प्रेमियों के समक्ष विचारणीय ज्वलंत प्रश्न भी है | भारत में अनुसूचित जाति का आरक्षण सबसे पहले हिन्दुओं की सामाजिक रूप से बहिष्कृत एवं अछूत समझी जाने वाली जातियों के उत्थान हेतु घोषित किया गया | कालांतर में इसमें हिन्दू धर्म त्याग कर परिवर्तित हुए बौद्धों को भी शामिल कर लिया गया | (शायद कोर्ट द्वारा हुआ हो , मुझे कन्फर्म नहीं) | तत्पश्चात धीरे से इसमें सिखों को भी समायोजित कर लिया गया |

हैरत ये है कि सामाजिक वहिष्कार एवं छुआछूत का दंश झेलते चले आ रहे दलित समाज के वो लोग, जो बौद्धों के स्थान पर ईसाई धर्म में दीक्षित हो गए , चतुराई से धकिया कर किनारे ठिकाने लगा दिए गए | मजे
की बात ये है कि जो लोग अपने आप को रूलिंग कास्ट आफ इंडिया घोषित किये पड़े है या जो अम्बेडकरवाद का चहुँदिश डंका पीटें जा रहे हैं , उन्हें ये सब दिखाई क्यों नहीं पड़ रहा | दलित बौद्ध SC और दलित ईसाई GEN ? ये कैसा मानदंड है ? और अगर है भी, तो इसे बदला जाना चाहिए |

मुसलमानों की तमाम दलित जातियां ,जो 1956 से अद्यतन अनुसूचित जाति की सूची में वर्णित हैं , जैसे लालबेगी , हेला, धोबी आदि को ,कि मुस्लिम SC नहीं हो सकता , कहकर कब तक नागरिक अधिकारों से वंचित किया जाता रहेगा ?

सरकार स्पष्ट करे कि अनुसूचित जाति का आरक्षण जाति के आधार पर है या धर्म के आधार पर |

यदि जाति के आधार पर है तो आरक्षण , सभी दलित जातियां चाहे फिर वो किसी भी धर्म
की क्यों न हों,यदि अपनी निर्योग्यता प्रमाणित करती हों, दिया जाना चाहिए और यदि आरक्षण में धर्म की बाध्यता है कि वो हिन्दू, सिख ,नव बौद्धों के लिए ही है, ईसाई या मुस्लिम के लिए नहीं | गलत है , विधिसम्मत तो हरगिज़ नहीं है | निसंदेह कहीं न कहीं इसके पीछे ठेकेदारी एवं जातिवादी दूषित मानसिकता छिपी हुयी है जो आरक्षण की मूल भावना के सर्वथा विपरीत है |

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