मछुआ वीरों से आह्वान
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भूल चुके तुम आज निषादों, वेदव्यास से ज्ञानी को ।
भूल चुके तुम आज लग रहा, फूलन की कुर्बानी को ।।
भुला दिया है तुमने तिलका मांझी से बलिदानी को ।
भूल चुके तुम आज लग रहा दशरथ स्वाभिमानी को ।।
भूल गए तुम प्रेम शबरी का, जिद पर अड़ना भूल गए ।
भूल गए तुम संघर्षों को, हक पर मिटना भूल गए ।।
महापराक्रमी रानी दुर्गा की ललकारें भूल गए ।।
सदा शत्रुशोणितरंजित प्यासी तलवारें भूल गए ।।
गौरव तुमने भुला दिया है गुह्यराज की भक्ति का
तुमको बिल्कुल मान नहीं है कालूदेव की शक्ति का
भूल गये तुम आज जवानों, हिम्मत सिंह की हिम्मत को ।
और भुला बैठे तुम नत्था केवट जी की ताक़त को ।।
भूल गए इतिहास स्वयं का, विस्मृत किया कथाओं को ।
जिनमें पौरुष वर्णित था, ऐसी कुछ परिभाषाओं को ।।
भूल गए तुम अपने लोगों की टूटी आशाओं को ।
भुला दियें हैं स्वप्न कई , भूले कुछ अभिलाषाओं को ।।
जमुना और जयपाल स्वर्ग में बैठ भला क्या सोचेंगे ।
एकलव्य के वंशज रण से उलटे पैरों लौटेंगे ?
अब ये तुम पर रहा जवानों कैसा धर्म निभाओगे ।
जो स्वर्णिम इतिहास रहा तुम उसको वापस लाओगे ।।
या फिर अपने अधिकारों की होली जलते देखोगे ।
आरक्षण की मांग पुरानी , कब तक टलते देखोगे ।।
आओ ! हम सब मिलकर यदि अपनी आवाज़ उठाएंगे ।
हम विकास की दौड़ में सब से आगे खुद को पायेंगे ।।
आभार :-अरुण कुमार तुरैहा
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भूल चुके तुम आज निषादों, वेदव्यास से ज्ञानी को ।
भूल चुके तुम आज लग रहा, फूलन की कुर्बानी को ।।
भुला दिया है तुमने तिलका मांझी से बलिदानी को ।
भूल चुके तुम आज लग रहा दशरथ स्वाभिमानी को ।।
भूल गए तुम प्रेम शबरी का, जिद पर अड़ना भूल गए ।
भूल गए तुम संघर्षों को, हक पर मिटना भूल गए ।।
महापराक्रमी रानी दुर्गा की ललकारें भूल गए ।।
सदा शत्रुशोणितरंजित प्यासी तलवारें भूल गए ।।
गौरव तुमने भुला दिया है गुह्यराज की भक्ति का
तुमको बिल्कुल मान नहीं है कालूदेव की शक्ति का
भूल गये तुम आज जवानों, हिम्मत सिंह की हिम्मत को ।
और भुला बैठे तुम नत्था केवट जी की ताक़त को ।।
भूल गए इतिहास स्वयं का, विस्मृत किया कथाओं को ।
जिनमें पौरुष वर्णित था, ऐसी कुछ परिभाषाओं को ।।
भूल गए तुम अपने लोगों की टूटी आशाओं को ।
भुला दियें हैं स्वप्न कई , भूले कुछ अभिलाषाओं को ।।
जमुना और जयपाल स्वर्ग में बैठ भला क्या सोचेंगे ।
एकलव्य के वंशज रण से उलटे पैरों लौटेंगे ?
अब ये तुम पर रहा जवानों कैसा धर्म निभाओगे ।
जो स्वर्णिम इतिहास रहा तुम उसको वापस लाओगे ।।
या फिर अपने अधिकारों की होली जलते देखोगे ।
आरक्षण की मांग पुरानी , कब तक टलते देखोगे ।।
आओ ! हम सब मिलकर यदि अपनी आवाज़ उठाएंगे ।
हम विकास की दौड़ में सब से आगे खुद को पायेंगे ।।
आभार :-अरुण कुमार तुरैहा
विश्वम्भर जी सबसे पहले आपको मेरा प्रणाम...इस लिए नही की आप बड़े नेता है बल्कि इसलिए क्यो कि आप बड़े है...
जवाब देंहटाएंआपकी कविताओँ मेँ जान तो है पर इतनी नही की मृत पड़े हम निषादोँ का जगा सके ...बड़ा दुःख होता है जब अपने भाईयो(मल्लाहो) की गरीबी देखता हूँ ...अच्छा होता हम हरिजन ही होते कम से कम हमारे लिए बोलने वाला तो कोई होता,लड़ने वाला तो कोई होता...दिल मेँ आता है कि कुछ ऐसा करु जिससे मै रहूँ ना रहूँ पर दुनियाँ वाले जान जाये कि मल्लाह बिरादरी भी कोई है पर क्या समझ नही आता,कैसे ...?
अगर मैने कुछ भी गलत लिखा हो उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ।